आँसू बहाऊँगा।
आँसू बहाऊँगा।
क्या कभी वह दिन आएगा,
जब यह नाचीज़ तुम्हारा कहलाएगा।
कामनाओं के जाल में फंसकर,
उलझता ही मैं जाऊँगा।।
मन की मलिनता दूर ना होती,
इधर-उधर भागता ही जाएगा।
मैं मूरख ठहरा अज्ञानी,
तुम तक पहुँच ना पाऊँगा।।
सुख, संपदा, मान के खातिर,
जीवन यूँ ही व्यर्थ बीतता जाएगा।
स्वत: ही जीवन नष्ट कर दिया,
तुमको रिझा न पाऊँगा।।
अपनी व्यथा मैं किससे कहूँ,
मन विचारों में उलझता जाएगा।
दुर्गंध युक्त स्वार्थ में सिमटकर,
मिलन ना तुमसे कर पाऊँगा।।
लाख समझाया तुमने मगर,
तुम्हारी लीला कौन समझ पाएगा।
जो दी थी "सत्संग सुधा" की चूनर,
दाग बिन कैसे रख पाऊँगा।।
द्रग- विन्दु भी कुछ कर ना सके,
सच्चा प्रायश्चित ना हो पाएगा।
मेघ की भांति "नीरज" को समेट लो,
व्यर्थ ही आँसू बहाऊँँगा।।
