सुनहरी शाम
सुनहरी शाम
सुबह और रात के बीच
कसमसाते
कुछ लम्हे यानी शाम..!
दिल के भीतरी विलंबित
अहसास की सुगंध है शाम
अंधेरों के अधरों पर ठहरी
मख़मली उजाले की
बाँसुरी है शाम..!
दरिया के मौजो से उठते
नगमों की धुन सी शाम
सच में दो पहर के बीच की
ये हसीन घड़ीयाँ अमृता इमरोज़
के दिल से शिद्दत से उठती चाहत है..!
या है
महेज़बीन के दर्द से
उभरती गज़ल का मिसरा
कभी रंगीन तो
कभी संगीन सी शाम..!
ये लो आज सज गई
किसी छोटे बच्चे की
आड़ी टेढ़ी पेंन्टिंग सी
कल जो थी अज्ञात की कहानी सी
धूमिल छरहरी..!
दिन के बेशुमार शराबे से
ताल मिलाते रात को आगाज़ देते
सारे वाद्यों से उभरती शाम,
लगती है कुछ पूरसुकून सी
रुनझुन चलती मासूम बालिका सी..!
पर्वतों के बीच से आहिस्ता
दरिया की गोद में छिपता
सूरज तपस्वी सा शांत ढल रहा है..!
प्रेमाकृत करती
उन्मादी रश्मियों की रजकणों से
सजाते हर दिल में चाहत का
नूर बरसाती शाम..!
ये शाम नहीं
मंत्र मुग्ध करते लम्हों की कशिश है।।