ओ सृष्टा !
ओ सृष्टा !
ओ सृष्टा !
तुमसे सृजित
रक्त अभिसिंचित तुमसे
पावन-पीयूष-पय
पान कराती ममता-सरणी
सदा नीर सी प्रवाहित,
पथ सँवारती
सकल संतति
जगताप हरणी
नित हित करती
कल्याणी !
ओह, वह कठिन भार
जीवन पल्लवन का
सर्वदुख, सब मर्मांतक पीड़ा सहती
एक जीवन बनाने
मिटाती संपूर्ण वजूद,
नव रूप धर धारिणी
नव जीवन
नव अनुभूति, नवल भाव
प्राणाहुति कर गर्वित होती
श्रेष्ठा !
तुम सदा नमित
फलयुक्त वृक्षों सा
अदर्पित अर्पित कर
जीवन सारा
कर्तव्य वेदी पर
होम करती
सुख-साधनों की
सपनों की,
आकांक्षाओं की
लुटाती जीवन निधि
ममता, करुणा, वात्सल्य की
अगाध उदधि
श्रद्धा ! श्रद्धेय तुम
जीवनपर्यंत प्रतिपालन करती।
दिन-प्रतिदान
छुपा लेती हृदय में
समूल बीज
पीड़ाओं, उपेक्षाओं, अपमान
और एकाकीपन की
और जरामय जर्जर।
तन और मन की
सभी आवश्यकताएँ,
बाँटती सदा
नेह ममता और करुणा का
प्रसाद सुधा
ओ अमृता !
कभी भी व्यर्थ नहीं होता
तुम्हारी दुवाओं का असर
कालजयी तुम
समयातीत अस्तित्व
देवता भी तरसते।
चरणधुलि आँचल
ममता की बेलि में लिपटने
नहीं अवसान कभी
हर सृजन का कारण
कारक कर्ता तुम।
बदले रूप संबोधनों के
पर गूढ़ बीज मंत्र
कोई न बदल पाया
नमनीय पूजनीय श्रद्धेय ही नहीं
मारन कारन तारन हो,
रागिनी !
साँसों में सरगम भरती
जगत्धात्री, अखिलेश्वरी
माँ ! तुम दूर कहाँ
हर साँस समाई।
जीवन, साँसें सब
प्राण मन तुझे अर्पण
स्वीकृत करो
हे ! हे ! हे !
जननी जननेयती
भावमय विकलितम
शत शत नमन।।