वक़्त रथ हाँक रहा था
वक़्त रथ हाँक रहा था
वह सो रही थी
चाँद झाँक रहा था
अपनी सुंदरता हाँक रहा था।
उसके चारों ओर फैला था
नूर आफताब की तरह,
नीरवता छाई थी माहौल में
बहती ममता रोशनी की तरह
और चाँद गहराई माप रहा था।
सब सिमटे थे उसकी ओर
चाँदनी की तरह टिमटिमाते
और वह आभामयी सोई
सपनों की सेज सजाते
और ऊपर
चाँद काँप रहा था।
चाँद सोया नहीं कभी
पुनः पुनः जाग उठता है
पर वह सोई थी अबाधित
महताब की जाज्वल्यता लिए
और चाँद रूदन अलाप रहा था।
गगन में पूर्णिमा की आभा थी
धरती में जीवन का चाँद था
कौन थी वह सोई दीप्ति
स्वच्छ निर्मल कांतिमयी।
सोई हुई खोई हुई
हाँ हाँ हाँ
वह मेरी माँ की पार्थिव काया थी
वक़्त रथ हाँक रहा था।
