सपनों के बगुले उड़ चले
सपनों के बगुले उड़ चले
रीत हुए नेह के गागर,
नयनों से अश्रु झरे
प्यासा हुआ आज सावन,
समंदर के तीर खड़े
सपनों के बगुले उड़ चले।
छा रही स्मृतियों की मेघाली,
घन उमड़े पीड़ाओं के
कौन बुझे जीवन की पहेली,
अकथित व्यथाओं के
मूक हुए अधर अकंपित,
वाणी हुई मौन भरे
सपनों के बगुले उड़ चले।
आज समंदर तौल रहा,
स्वंय अपनी गहराई को
लहरों ने राह बदल ली,
तोड़-तोड़ अंगराई को
सूना पड़ा कूल देखता,
स्मृतियों के पंछी भूल चले
सपनों के बगुले उड़ चले।
आशाओं के डूबते उतरते,
सूरज थके अस्ताचल में
मेह की भीगी बदरी,
छा गई उर स्थल में
फूटे अँखियों की सीपी,
भावों की मोती बिखरे
सपनों के बगुले उड़ चले।।