यात्रा
यात्रा
तुम्हें भी तो याद होगा
जब यात्रा शुरू की थी
साथ साथ कदम उठाए थे
एक सोच
एक विचार
एक स्तर
दो जिस्म
इक जान थे हम।
ऐसा लगा था
या पहना हुआ मुखौटा था
कह नहीं सकती
अच्छी शुरुआत थी
सोचा था
कट जाएगी यात्रा
हंसते हंसते
खुशी से।
न जाने कब और क्यों हुआ
तुम वृक्ष बन गए
मैं नदी बन बहती रही
मै
ं प्रश्न नहीं उठा रही
तुम खड़े क्यों रह गए
तुम भी छायादार हो
फलदार हो
इतने लोगों के पालक हो।
मैं नदी बनी
क्योंकि मुझे विशाल का
अनुभव करना था
मुझमें अनंत की इच्छा थी
मुझे प्रियतम से मिलना था
अन्तर्मन से विकसित होना था।
रास्ते अलग अलग होने से
कठिनाइयाँ तो बहुत आईं।
दोष में तुम्हें देती
शायद हमारी
सही पहचान यही थी।