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Vivek Agarwal

Tragedy

4.9  

Vivek Agarwal

Tragedy

वसंत और कृषक

वसंत और कृषक

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आया वसंत का मौसम, छा गयी है अल्हड मस्ती।

पुष्प भ्रमर की क्रीड़ा देख, मानो प्रकृति भी हंसती।

पर पीले खेतों के बीच में, गहन सोच में वो बैठा है। 

क्या इस बार फिर बिकेगी, मेरी फसल ये सस्ती।


अन्नदाता की पदवी न चाहूँ, न चाहूँ झूठा सम्मान।

न चाहूँ भारी नारे ज्यूँ, जय जवान जय किसान।

मैं भी इक इंसान हूँ मेरी, बाकी सबके जैसी इच्छा।

मेहनत से हक़ का पाऊँ, रोटी कपडा और मकान।


इसी खेत की मिट्टी में मैं, खेल कूद कर बड़ा हुआ।

निज-श्रम की शक्ति से मैं, अपने पैरों पर खड़ा हुआ।

कहते हैं की चंद सिक्कों में, बेच दूँ अपनी सारी यादें। 

ना छोडूं इस टुकड़े को मैं, इसी बात पर अड़ा हुआ।


है चुनावी मौसम आया, अब प्रचार के हल चलेंगे। 

आश्वासन की खाद लगेगी, वायदों के बीज पड़ेंगे।

वोट हमारे पाने को, उम्मीदवारों की भीड़ लगी है।

एक बार सत्ता मिल जाये, मुड़ के हमें न देखेंगे।


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