वर्षा की त्रासदी
वर्षा की त्रासदी
ऐसा मैंने क्या किया जो मुझ पर करते हो इतना रोष।
तुमने धरा का ध्यान न धरा तो मेरा क्या इसमें दोष।
मैंने तो था नहीं किया अतिक्रमण झीलों, तालाबों का।
प्रभु प्रदत्त उपहार थे ये समाधान बाढ़ व सैलाबों का।
किसने काटे थे वृक्ष वनों के, किसने बाँधीं थी ये नदियाँ।
नष्ट किया कुछ दशकों में, विद्यमान था जो इतनी सदियाँ।
बढ़ती जनसँख्या और उपभोग, धरती का ताप बढ़ाते हैं।
सागर को बदले वाष्प में और हिमनदों को पिघलाते हैं।
मैं मात्र मेघों की दुहिता, मेरा अपना अस्तित्व कहाँ है।
जितना जल जग से पाया, वही बरस कर अब यहाँ है।