वृद्धाश्रम की देहरी से
वृद्धाश्रम की देहरी से
नौ माह रक्त से सींचा जिसको
सपने बुन - बुन पाला जिसको
अब सपनों में देख रहे उनको
बहते नैनों के नीर पुकारे उनको l
याद आती है हर एक बात
बालपन से बदले हालात तक
माँ की लोरी से अपनों के तानों तक
दूध की कटोरी से खाली थाली तक l
बाप बनने की मिली थी सूचना
वो उँगली पकड़कर के चलना
याद है खिलौनों के लिए मचलना
हिचक- हिचककर कर रोना l
अब तो आँखों में हैं अश्क़ बहे
खुशी की चाह भी नहीं दिखे
काँपते हाथ नहीं कहीं टिकते
अम्मा - बाबा सुनने को कान तरसते l
याद नहीं करते है उनको अपने
जो हर दिन घर जाने के देखे सपने
सिर टिकाए बैठे हुए वृद्धाश्रम में
राह तक रहे हैं अपनों की अपने ।