वक़्त के हाथों बंट चले...
वक़्त के हाथों बंट चले...
वक़्त के हाथों बंट चले दुनिया भर के मेले,
कुछ खेल तुमने और कुछ हमने खेले...
मिज़ाज गड़बड़ाता रहा तन्हाई की चादर तले,
कुछ खेल तुमने और कुछ हमने खेले...
इक फांस सी रह रह कर दिल-ओ-बदन चुभती रही,
हम हैं बदनसीब या तुम बेज़ार अक्स में उलझन यही चलती रही...
ज़र्रे ज़र्रे में बिखर गए आशियाने मेरी आरज़ू के,
कुछ खेल तुमने और कुछ हमने खेले...
महफ़िल सज रही थी और शमा जल रही थी,
किसी बिछड़े की याद में वो पल पल पिघल रही थी...
शरारा-ए-शमा रंग-ए-बहार कैद हुई रौनक,
कुछ खेल तुमने और कुछ हमने खेले...
ताबीज़ की तहरीर पर दुआओं का हमने हुजूम मांगा,
उस परवरदिगार से हमने हो मतलबी लाशों का हुजूम मांगा...
काला सोना पी गये खूं में मिला कर अपनों के,
कुछ खेल तुमने और कुछ हमने खेले...
बिसात ना थी जिस वफ़ा की फ़लक तक,
उसे दरीचों में कुफ्र के क़ैद तुमने कर दिया...
उस बनाने वाले को भी तुमने,
कभी ईश्वर कभी अल्लाह कर दिया...
बदन तो बदन रूहें तक तुमने सरे-आम बेचे,
कुछ खेल तुमने और कुछ हमने खेले...
ना सिहर उठते तो बताओ क्या करते,
वहशत में तुमने जो यूँ अपने दिल को मोड़ा...
ज़ख्म दिल पर नहीं पीठ पीछे तुमने दिये,
कुछ खेल तुमने और कुछ हमने खेले...
बर्दाद होना था 'हम्द' सो आख़िर हो ही गये
हो तम्मनाओं में तेरी मुन्तज़िर,
ना समझी में कुछ खेल तुमने और कुछ हमने खेले....
