वो ....
वो ....
घडी के कांटे की तरह हर वक़्त चलती-फुदकती रहती थी वो,
कोई मोड़, कोई घुमाव, ओट या ही कोई चोट या
हो बगल में खाई,थमने का नाम तक नहीं लेती थी वो
इतनी ऊँची उड़ान, इतनी लम्बी छलांग मार अपने
नाम से पूरा आसमान रंग देती थी वो
हर पल, हर झलक में एक अलग एहसास,
इतनी भाव भंगिमाएं बनाती थी वो
कभी अंगड़ाई लेती सुबह की लजाती लहराती
उमंग से नहाई ताज़गी का एहसास थी वो
कभी इस उगते सूरज की उम्मीदी की किरणों को
सूर्यास्त से मिलाने में माहिर, दोपहर में
आने से पहले ही टूट जाती कच्ची पर गुड़ से मीठी झपकी थी वो
ना थी वो कहीं दुबकी-ढलती सी सांझ किसी अकेले कोने की,
ना ही किसी ज्ञानी -मार्गदर्शक का स्वांग रचाती,
यूं ही दिशाओं का अभिप्राय समझती 'शाम' वो,
वो तो थी आज़ाद-खुशनुमा संध्या, की
नभ-प्रांगढ़ में लाल-लालिमा की इतराती लौ में बेपरवाही के दिये जला
अन्धकार का पलके बिछाकर स्वागत करती थी वो
कभी तन्हा छूटे दर्द से दोस्ती का हाथ बढ़ाकर मेरे
स्याह जीवन की सबसे यादगार इंद्रधनुषी रात थी वो,
दिन - रात, गर्मी - सर्दी, बारिश -बसंत
मेरा हर पल,हर मौसम, मेरा वक़्त थी वो,
हाँ ! वक़्त की ही तो तरह थी वो जो मेरी होकर भी
कभी मेरी ना हो पाई, मेरा हो तो अक्स थी वो।
