वो वीरान सा गांव
वो वीरान सा गांव
मै अक्सर दुखी होता हूं
अपने गांव के वीराने को देख कर,
गांव के उजड़ते मकानों को देख कर,
जंक लगे तालों,
टूटी खिड़कियों को देख कर,
जहां हरदम खामोशी छाई है,
पर जहां कभी बसती थी खुशियां बेशुमार,
हर ओर बच्चों की धुमा चौकड़ी,
खुशियों से खिले चेहरे,
और चहल कदमी करते लोग,
आज वहीं एक अजीब सा सन्नाटा है,
हर घर एक दूसरे को
देख कर रूआंसा सा हैं,
और आंसुओं को दबा कर बैठे हैं।
अब तो ताक पर चिमनियों की
कालिख भी धीरे धीरे मंद पड़ गई है,
कोठों, किवाड़ों की वो खुशबू
कहीं गुम सी हो गई है,
दीवारों पर लगी वो लाल सौंधी
मिट्टी भी बदरंग हो गई है,
अब तो पटाले भी मकानों के
उखड़ रहे हैं गांव में,
और वो जुगनू जो कभी
बच्चों के लिए टिमटिमाते थे,
आज अपनी रौशनी को खो चुके हैं,
गांव का वो चांद जिसे मां
अक्सर बच्चों के मामा
कहकर पुकारती थी,
अब मुरझाया सा है सहमा स्तब्ध है,
लेकिन फिर भी उम्मीद में है
कि शायद, फिर से अपनी
चांदनी को बिखेरेगा
अपने इस उजड़ते वीरान,
परेशान गांव को पहले की तरह।