वो होंगे कोई और
वो होंगे कोई और
सबकी होती प्रकृति निराली,
सबकी अपनी शैली है।
कहीं पे गंगा निर्मल बहती,
और कहीं पर मैली है।
आदत नहीं फेंकना पत्थर,
जिधर लगी हो भौंर।।
वो होंगे कोई और।।
करें नहीं अन्याय किसी पर,
न हम किसी की कथा लिखें।
मजबूरों, असहायों की हम,
जितनी बनती व्यथा लिखें।
बनता नहीं मज़ाक बनाना,
मुफ़लिसी के दौर।।
वो होंगे कोई और।
चलती कलम व्यवस्थाओं पर,
अगर कहीं कुछ लगता है।
देदीप्यमान सूरज आने पर,
निश्चित ही तम भगता है।
छोटी-मोटी बातों पर हम,
कभी न करते गौर।।
वो होंगे कोई और।
कोई लिखे प्रकृति पतझड़ वन,
कोई मन्दिर उसकी मूरत।
विरह-वियोग में लिखता कोई,
सुंदर श्याम सलोनी सूरत।
कोई जानू जिगर का टुकड़ा,
लिखता जान बतौर।।
वो होंगे कोई और।
कलम बेंचकर बनें हवेली,
ठीक नहीं खुद्दारी है।
गिरवी अन्तःकरण रखा यह,
खुद के सँग ग़द्दारी है।
नहीं चाहिए महल-दुमहले,
हमको भली है पौंर।।
वो होंगे कोई और।
ख्वाहिशें तादात से ज्यादा,
नहीं पालते अपने मन में।
लेकिन सच के साथ मिलेंगे,
जब तक प्राण है तन में।
'अमर' तमन्ना और नहीं प्रभु,
दो चरणों में ठौर।।
वो होंगे कोई और।
