श्रमिक
श्रमिक
महँगाई के दौर में, बेबस है मजदूर।
गार रहा तन काम कर, हो- होकर मजबूर।
हो-होकर मजबूर, नहीं अब काम- कमाई।
नर की जगह मशीन,खोदती दिखती खाई।
कहे अमर कवि राय, अर्थ की रोवा- गाई।
कोस रहे हैं लोग, बढ़ी क्यों है महँगाई।
करता है निर्माण जो, बँगला आलीशान।
करे बसर फुटपाथ पर,वही श्रमिक इंसान।
वही श्रमिक इंसान, बनाता है देवालय।
कभी न पाया देख,एक भी दिन विद्यालय।
कहे अमर कवि राय, रहे सहमा-सा डरता।
झुग्गी झोपड़ डाल, जिन्दगी यापन करता।
होता अपमानित श्रमिक, सुन लेता दो बात।
सुन मालिक के दुर्वचन, लगता है आघात।
लगता है आघात, किंतु कुछ कह मत पाता।
इसे समझकर भाग्य, दीनता पर पछताता।
कहे अमर कवि राय, अश्क से चक्षु भिगोता।
रह जाता यह सोच, लिखा विधि का ही होता।
