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Mukesh Bissa

Abstract

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Mukesh Bissa

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वो एक नारी

वो एक नारी

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वो एक नारी

जो अपने घर अंगना को

एक तरतीब से

संवारती है

हर मुश्किल से

हर तूफान से

बचाती है

खुद की बिना

परवाह किये

अपने चैन सुकून को

कर दरकिनार

बस बहती चली जाती है

 

वो एक नारी

शबरी से सिख ले

खान पान पहल खुद

चख लेती है

मन से सभी को

परोसती है

शेष न रहने पर

झूठ पेट भरने का

नाटक ही कर

खुद भूखी सो

जाती है

 

वो एक नारी

पाई पाई पैसा

बचाकर

सबकी मांग पूर्ण

कर देती है

चादर अपनी

कर सिकुड़ी वो

घर अपना चलाती है

 

वो एक नारी

दुख भले हो

मन मे बहुत पर

चेहरे पर कभी नहीं लाती है

काल्पनिक मुस्कान दिखाकर

पथ पर अपने

बढ़ती चली जाती हैं

 

 

 


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