वो आदमी
वो आदमी
तपती धूप, रेंगती सड़क ,
उस पर चलता आदमी।
हर कदम पर, मन में
कुछ जोड़ता जाता ,
दो रुपये की बस की टिकट
बचाता आदमी।
जेठ की धूप में,
दो किलोमीटर चलना
जान सूखा देती है।
किसी छाँव में फिर
रूककर सुस्ताता ,
वो आदमी।
सूरज की धमक ,
रस्ते की जलन ,
उस पर फिर भी ,
पाँव बढ़ाता,
वो आदमी।
आख़िरकार, पहुँच जाता है,
अपनी मंजिल पर,
फिर पानी की बूँद से,
प्यास बुझाता
वो आदमी।
बात धूप की नहीं ,
न ही चलने की है ,
बाद परिस्थितियों की है ,
जहाँ दो रूपये की
कीमत समझाता है
वो आदमी।
समय बेचकर ,
तकलीफ सहकर,
खर्च काम करता हुआ,
ऐसे भी पैसे कमाता ,
भारत का एक गरीब,
वो आदमी।