दीपावली
दीपावली


अट्टालिकाएं दीपों से सज गयी,
रह गयी कच्ची मुंडेर खाली,
मिली न फुरसत भव्य भवनों से,
तंग गलियों से गुजर ना पायी
चिर प्रतीक्षित महंगी दिवाली।
आडंबर के आंगन में उतरी,
रात अंधेरी दीपों वाली,
रही सुलगती बिन बाती ही,
नीरव निशीथ में कंचियाँ-काली।
स्वप्नों के सारे बीज जलाये,
अरमानों की चिता जलायी,
सब दीपों में अश्रु भर गए,
दीपों वाली रात जब आई।
स्वप्न जले भीगी आँखों के,
बिना दीप ही जली दिवाली,
कहीं समृद्धि कहीं शून्यता,
इस दुनिया की हर बात निराली।
नजर चुराकर अंधियारों से,
छप्पर के महीन दरारों से ,
एक किरण भर गई हर कोना,
गम और तम के उपहारों से।
नन्हीं आँखों के आस बिखर गए,
झिलमिल प्रखर प्रहारों से,
उऋण न हो पाई निर्धनता,
नियति के निर्मम उपकारों से।
माँ बेचारी भर न पाई,
रिक्त मुट्ठियाँ अपने प्यारों की,
बुझा ना पाए आँखों के पानी,
प्यास उसके ग्रीवाहारों की ।
आश्रय की नाव छोटी,
सह न सकी तीव्रता धारों की,
भोले मन की आकांक्षाएं,
आहार बन गई अंगारों की।
घर-घर इतने दीप जले,
एक घर का चूल्हा जला न पाए,
जलकर कितने आतिश बुझ गए,
उदराग्नि को बुझा ना पाए ।
एक फुलझड़ी एक बतासा,
उम्मीद इतनी ही, इतनी-सी आशा,
ये भी पूरी कर ना पाए,
सब कुछ स्वाहा कर गई निराशा।
इनके जीवन में रोज ही आती,
अमावस की रात काली,
ना जाने किस दिन आएगी,
अंधेरी झोपड़ी में दिव्य दिवाली।
रंग महलों की होकर रह गई,
सजी-धजी रूपहली दिवाली,
राह वाले यही सोच कर सो गए,
फिर आएगी यह दिवाली।