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Sarita Gupta

Tragedy

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Sarita Gupta

Tragedy

प्रभु ! क्या तुम भी पाषाण हो गए

प्रभु ! क्या तुम भी पाषाण हो गए

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निमेषकों के नीर धार से,

मनुज ने कितने अर्घ्य सींचे,

प्रस्तर पूजित निष्ठुर देवों के,

कितनी बार हैं पलक पसीजे।


साहस ने कभी मुट्ठियाँ भींची,

कभी भय से यह पलकें मिंची,

बार-बार स्खलित हुआ धैर्य,

आशा की खंडित रश्मियाँ भींगी।


किए पे अपने मनुज पछता ले,

चाहे अविरल नीर बहा ले,

नहीं कभी कालचक्र रुकेगा,

नहीं कभी नियति पिघलेगी ।


यदि जीवन ने काव्य रचे हैं,

तो मृत्यु महाकाव्य रचेगी,

जन्म देकर तुम भूले हो ,

कैसे यह सृष्टि भूलेगी ।


सृजन और संहार-चक्र में,

किस विधि-विधान में खोए हो,

प्रलय का तांडव चल रहा,

किस अटूट ध्यान में खोए हो ?


मानव निर्मित मंदिरों में,

चिर निद्रा में कैसे सो गए,

पाषाणों में रहते-रहते,

प्रभु ! क्या तुम भी पाषाण हो गए ?


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