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Dineshkumar Singh

Abstract Others

4.5  

Dineshkumar Singh

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सन47 की रात

सन47 की रात

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सन 47 की रात को,

आधा विश्व गहरी नींद में

सोया था,

भारत आज़ादी के अपने 

पहले सुबह की तलाश में

जाग रहा था।


कई सौ साल की यह वह

तलाश थी,

वीर शिवाजी ने जिसकी

शुरुआत की।


यह वह पल था,

जब पलकें, लाल किले

पर टिकी हुई थी,

धड़कने तेज़ थी,

पर सांसे लगभग

थमी हुई थी।


यूनियन जैक आखिर

उत्तर गया,

लाल किले के प्राचीर पर

तिरंगा फहर गया।


मन के भाव, अव्यक्त हो गए,

आँखों से आँसू, खुद ब खुद

छलक गए।

इस क्षण को पाने में

न जाने कितना

जीवन निकल गया।


रात का अंधेरा अब भी था

पर आंखों में रोशनी

जाग चुकी थी।

ज़मीनी हकीकत कुछ

बदली नहीं,

पर में विश्वास उमड़

रहा था।


कोई भरोसा दे रहा था

कि वक्त बदलेगा,

भारत, फिर सोने की चिड़िया

वाली ऊंचाई छू लेगा।


पर जहाँ लाहौर जल रहा था,

कलकत्ता भी शांत न 

कश्मीर की ख़बर पक्की न थी,

हैदराबाद लड़ पड़ा था,

तो जूनागढ़ अड़ गया था।


पहले दिन आजादी के,

कानून व्यवस्था का

प्रश्न उठ खड़ा था।


तो क्या, अब फिर से लड़ना था?

पर किससे? किस किस मोर्च पर?

किस किस मसले पर?

आजादी का ये मतलब

ना हमने सोचा था, ना समझा था।


सन47 की रात को,

जब हम आज़ादी की

स्वागत की तैयारी में थे,

कुछ लोग ऐसे भी थे,

जो फिर हमें अंधेरे में

धकेलने की कोशिश में थे।


इसका मतलब

समय बदल गया

दुश्मन भी बदल गया

पर लड़ाई जारी है।



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