वक़्त
वक़्त
ये वक़्त है,
की रुकता ही नहीं,
थामने की कोशिश तो करता हूं,
पर ये सुनता ही नहीं।
बचपन फिसला अनजाने ही,
जवानी समझने में गुजरी,
अब ये बुढ़ापा है बचा हुआ,
जो ख़त्म नहीं होता है।
बुढ़ापे का किरदार लिए,
रोज नाटक खेलता हूं।
मौत के पुरस्कार के लिए,
हर रोज तरसता हूं।