"प्रलय -पूर्व -असुरवाणी "
"प्रलय -पूर्व -असुरवाणी "
प्राचीन सभ्यता में सहस्रों बार असुरों का वर्णन आया है,
पर किसी असुर ने इंसानों-सा तमोगुण नहीं पाया है ।।
रणचंडी सम चहूँ दिशा में भयावह त्राहि त्राहि मचाया है,
महत्वाकांक्षा के मद में मदमस्त होकर धर्म राह भुलाया है,
हिंसात्मक, असुरी प्रवृत्ति को जो निःसंकोच अपनाते हैं,
सुना है ऐसे कलियुग के मतवाले 'असुर' मुझको कहते हैं ।
मदिरा के आसक्त जब लांघ चुके हैवानियत की हद,
जिन्हें बांध न सकी अंधेर नगरी की दृष्टिहीन न्याय सरहद,
चीत्कारों के रोष कंपन से जिनके हृदय नहीं पिघलते हैं,
सुना है ऐसे कलियुग के मतवाले 'असुर' मुझको कहते हैं ।
'दुर्योधन' के रूप में 'भय' निर्लज्ज हो स्वच्छंद विचरता हैं,
धर्म संसद सदा से द्रौपदी को ही चरित्रहीन ठहराता है,
'दुःशासन' का लहू पीने में असमर्थ 'षंड' मोमबत्तियां जलाते हैं,
सुना है ऐसे कलियुग के मतवाले 'असुर' मुझको कहते हैं ।
असंख्य पापों में लिप्त रक्ष संस्कृति ने फिर छेड़ी है हुंकार,
इस युग के महाकाल, कल्कि, काली कर रहें हैं विध्वंस का श्रृंगार,
जिस युग के स्मरण से ही मेरे दसों शीश शर्म से झुक जाते हैं,
सुना है ऐसे कलियुग के मतवाले 'असुर' मुझको कहते हैं ।
'असुर' ब्रह्म रूप नहीं हर जीव में छिपी दूषित प्रवृत्ति है,
दुराचार, अविचार, अविवेक आदि की असामाजिक आवृत्ति है ।।