तपती सी दोपहरी
तपती सी दोपहरी
तपती इस दुपहरी में,
तेरी यादें आ गिरी मेरे आंगन में।।
पोखरे में मानो पत्थर था गिरा,
मेरा रोम रोम बिखर सा गया,
डर कर कमरे में जाकर मैं छुप गई,
एक अंधेरी कोठरी में सिमट सी गई।।
तपती इस दुपहरी में,
तेरी यादें आ गिरी मेरे आंगन में।।
सब बेहिसाब टूटा सा है,
ना जाने वो निशानियां अब किधर है,
होंठों की लाली भी अब धुल गई,
तेरी थी कभी अब तो मैं खुद से भी दूर हो गई।।
तपती इस दुपहरी में,
तेरी यादें आ गिरी मेरे आंगन में।।
सब बेवजह सा रूखा रूखा लगता है,
कल तक आईना था जो रिश्ता वो अब कांच सा लगता है,
इन आंखों में काजल अब ना सुहाए,
कैसे संवारूँ उलझी लटे अब कोई रंग ना इस तन को भाए,
तपती इस दुपहरी में,
तेरी यादें आ गिरी मेरे आंगन में।।
जिंदगी के इस मेले में मेरे जज्बातों का तमाशा क्या खूब बना,
कठपुतली के इस खेल में धागा टूटा और किस्सा खत्म हो गया,
क्यों ये बेबसी है,
क्यों दिल की राख में चिंगारी अभी बाकी है।।