वक्त का मारा
वक्त का मारा
वो प्यासी आँखों से शून्य में तक रहा है
खोये हुए सरमाये को ढूँढता
वक्त ने उसे एक खेल दिखाया है
कभी एक दरिये का मालिक था अश्रुओं की आग में सूख गया है.!
कई सपनों को परवाज़ में लिए घूमता था सब धुआँ बनकर उड़ गया है
एक बवंडर सा बहता था अपनी मस्ती में समय की आँधियों में खामोश हो गया.!
एक पीड़ अब ठहरी है उसके होंठों पर
चिल्लाना चाहता है दर्द के कतरों में दब गई है आवाज़ अब,
चर्राये तन से लिपटी है भूख की वेदना
भटक रहा है खाली जेब लिए.!
बदनसीब किसके भरोसे चले अब छीन ली वक्त ने बैसाखी सुख की
मन खाली आसमान सा खुशियों की बदली ढूँढ रहा है,
जी तो रहा है पर ज़िंदा कहाँ है
साँसों को गिनते एक आम इंसान
ज़िंदगी का बोझ ढोते गम पी रहा है।
