साँझ अकेली है
साँझ अकेली है
उलझता ही जा रहा हूँ, सुलझती नहीं ज़िन्दगी की पहेली है,
तन्हा मुसाफ़िर हूँ मैं सफ़र का, मेरी तो हर साँझ अकेली है।
ज़ख्म दिया वक़्त ने ज़िंदगी के हर मोड़ पे, पर मरहम नहीं,
ख़ामोशी के आगोश में, मेरी पहचान भी धुंधली हो चली है।
जो कभी साथ-साथ चले, मिट गए वो कदमों के निशान भी,
बिखर गया खुशियों का उपवन मेरा, मुरझाई हर कली है।
ख़बर कहाँ खुद को, किस ओर ले जाएंगी ये अनजान राहें,
चाहत की मंजिल तो यहाँ बस नसीब वालों को ही मिली है।
ख़्वाबों का आशियां था जहाँ, और थी खुशियों की धूप भी,
जहाँ गुनगुनाती थी कभी ज़िंदगी मेरी आज बंद वो गली है।
हर मोड़ पर वक़्त की ठोकरें खाकर, इतना तो समझ चुका,
वक़्त के आगे करतब करती, सबकी ज़िन्दगी कठपुतली है।