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बेज़ुबानशायर 143

Tragedy

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बेज़ुबानशायर 143

Tragedy

मेरा हिंदुस्तान बिक रहा

मेरा हिंदुस्तान बिक रहा

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मान बिक रहा है सम्मान बिक रहा है

हुआ बड़ा ही सस्ता इंसान बिक रहा है

बिक रही है किसी बेबस की मज़बूरी

चंद सिक्कों में यहाँ ईमान बिक रहा है


बिक गया कितनी आँखों का पानी भी 

थोड़ा थोड़ा मेरा हिंदुस्तान बिक रहा है

आदमी की थाली की रोटी कुत्ते छीन रहे हैं

कौए बैठे हैं मोती चुगते हँस टुकड़े बीन रहे हैं


किसी के छत और छज्जे और मज़बूत हो रहे हैं

किसी की टपकती छप्पर में छेद नए रोज़ हो रहे हैं

हुईं झूठी सारी ज़ुबाने,सत्य बीच बाज़ार बिक रहा है

थोड़ा थोड़ा मेरा हिंदुस्तान बिक रहा है


बराबरी की ये झूठी थाली कब तक पीटते रहोगे

कहते ही रहोगे बराबर या कभी बराबर भी करोगे

राजतंत्र के जाल में उलझ गईं कितनों की रोटियाँ

कितने बेबस माँ बाप की रह गईं कुँवारी बेटियाँ


सपना था आसमानों का कौड़ियों में बिक रहा है

थोड़ा थोड़ा मेरा हिंदुस्तान बिक रहा है

धरती का वो लाल जो मिट्टी में ही जीवन पाता है

धरती माँ की गोद से सोना और चाँदी उगाता है


सबके पेट भरे वो पर ख़ुद भूखा क्यों रह जाता है

ये कैसी लाचारी है क्यों बेबस वो हो जाता है 

पी कर कड़वे घूँट वो तब मृत्यु को गले लगाता है

खेत बिक रहे हैं उसके और मकान बिक रहा है


थोड़ा थोड़ा मेरा हिंदुस्तान बिक रहा है

धृतराष्ट्र की सभा जैसी लगी है सभा यहाँ

सबकी आँखों पर बंधी हुई एक पट्टी यहाँ

बढ़ती है बीमारी जैसे सुरसा आकार बढ़ाए


खोल के मुख अपना सबकुछ लीलती जाये

क्या मानव क्या रोज़ी रोटी और जाने क्या क्या वो खाये

रंगमंच पर टिकी निगाहें सच्चाई किसी को नज़र न आये

मीडिया बिक रही है समाचार बिक रहा है

थोड़ा थोड़ा मेरा हिंदुस्तान बिक रहा है।



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