मैखा़ना-ए-दिल
मैखा़ना-ए-दिल
फिर क्यों पैमाने छलक गए
अश्क बनके
मैंने तो जाम-ए-दर्द उठाया नहीं ?
यूँ शाम-ओ-सहर दिल-ए-नादाँ मेरा
बस मैख़ाने को चल दिया...
बस आदतन ऐतबार मेरा
नशे से टूट गया...!
रफ्ता-रफ्ता चाहत मेरी
कब्र-ए-तन्हाई बन गई...
मैं शायर था ग़मगीन, मगर
कागज़ पर ज़िंदगी मेरी गुलिस्तां-ए-
ग़जल बन गई...!

