कुछ तो बोलो मीत
कुछ तो बोलो मीत
ऐसी भी क्या मजबूरी है
कुछ तो बोलो मीत ।
मौन साधकर क्यों बैठे हो
ये कैसा प्रतिकार लिया है,
क्या मेरा अपराध यही है
तुमको निश्छल प्यार किया है,
मेरी हार बिना चाहे भी
तुम ही जाते जीत,
कुछ तो बोलो मीत।
फ़र्ज़ अदाई क्या करते तुम
दस्तूर निभाना भूल गये,
प्रीति सिद्धि के मंत्र सभी वे
क्यों मेरे ही प्रतिकूल गये,
था तुमको मालूम कि तुमसे
निभ न सकेगी प्रीत,
कुछ तो बोलो मीत।
निष्ठुर मौन तोड़ भी दो अब
चाहे शर्त लगा लो कोई,
सहने की आदत है मुझको
शंका तो मत पालो कोई,
यों लिखता है कौन अकारण
हाय! विरह के गीत,
कुछ तो बोलो मीत।