पहचान कैसे हो अब इंसान की
पहचान कैसे हो अब इंसान की
पहचान कैसे हो अब इंसान की
जब चेहरों पर चेहरे छिपे हो अपने अभिमान की
निकलती है इनके मुंह से सिर्फ मीठी बोलियां
लगता है वे नजदीक है मगर बढ़ाते हैं अपनों से दूरियां
अब तो अपने ही चेहरे पर भरोसा नहीं होता है
कैसे कर लूं तुम पर जब अपना ही धोखा देता है
काश मुखौटा भी एक मर्ज होता !
मिलती दवा बाजार में खाकर जिसे इंसान सतर्क रहता
अब तो अपने भी पराए लगते हैं
किस से कहें
हाल-ए-दिल सब खुदगर्जी में नहाए बैठे हैं।
