तोह़फा-ए-इश्क़
तोह़फा-ए-इश्क़
मैंने जिंदगी का हर वो तोह़फा-ए-इश्क़ को कबूल किया है
मेरी उन ख्वाहिशों का नाम बताना ही छोड़ दिया है
जो दिल के करीब है वो मेरे अजीज भी है
मैंने गैरों पर हक जताना ही छोड़ दिया है
जो समझ ही नहीं सकते मेरा वो दर्द को
मैंने उन्हें अपना वो जख्म को दिखाना ही छोड़ दिया है
जो गुजरती है दिल पे मेरी वो हकीकत है
मैंने दिखावे के लिए मुस्कुराना ही छोड़ दिया है अब
जो महसूस ही नहीं करते मेरी वो जरूरत को
हमने तो उनका साथ निभाना ही छोड़ दिया है अब तो
जो मुझसे बस नाराज रहना चाहते है
मैंने उन्हें अब बार बार मनाना ही छोड़ दिया है
जो मेरे अपने है वो तो मुझसे मिलेंगे को जरूर आएंगे
मैंने उन लोगों से बेवजह बंदिशें लगाना ही छोड़ दिया...अब

