ये कैसा तांडव
ये कैसा तांडव
मैं महामृत्युंजय मंत्र का जाप करने वाली
फल पकने की प्रक्रिया से थी गुजरने वाली
तभी बाबा बोले बिना तांडव फल नहीं पकते ।
बस शुरू हो गया तांडव,
परिकल्पना से परे था ये तांडव,
भोले की सोच से भी परे था ये तांडव ।
भार्या की
निष्ठा, सेवा, प्रेम सब को नकार गया,
उसके त्याग को लांछित कर गया,
उसके हृदय को तार-तार कर गया,
वर्षों की
निस्वार्थ सेवा को अपमानित कर गया ।
बाबा देख, ये सब दंग रह गए ।
"काम" कैसे बुद्धि हर ले गया,
घर की नींव हिला गया,
बरसों से उषाकाल में भरता
वो टिफिन खाली कर गया ,
ट्रे में एक ही कप छोड़ गया ।
फोन की घंटी का इंतजार
हर बार, जैसे
पहली बार कर रही हूँ इंतजार,
शाम छे बजते ही डोर बैल बजना,
अपने को संवारते हुए द्वार खोलना,
न जाने कितने अनगिनत
ऐसे पलों को छीन ले गया ।
माँ, पत्नी, प्रेयसी, कमलनयनी
के सतरंगी रंग उड़ा ले गया ।
विश्वास, भरोसा,अपनापन
पैरों तले रौंद ले गया ।
जीवन की परिभाषा बदल गया।
ये कैसा तांडव कर गया,
बाबा की कल्पना से परे कर गया ।
माँ-सुताओं को बेघर कर गया,
अंदर-ही-अंदर सुलगते छोड़ गया ।
ऐसे मोड़ पर खड़ा कर गया
जहाँ से कोई फल नजर आता नहीं ।
ये कैसा खेल, खेल गया,
बाबा को भी ये तांडव समझ आता नहीं ।
माँ- सुता महामृत्युंजय मंत्र जप रही
अपनी कर्मभूमि को सर्व समर्पित कर रही ।
इस बार फल पक कर
ईश्वर की झोली में ही गिरेगा
इसी विश्वास से
कर्मनिष्ठ जप कर रही ।