विषय-हर रात की तरह
विषय-हर रात की तरह
हर रात की तरह, यह भी दर्द लाई है,
चीखे सुनाई पड़ रही, लेते जम्हाई हैं,
कितने पाप कर्म होते, रातें हैं बदनाम,
नीच कर्म करने से,कीमत एक छदाम।
हर रात की तरह, यह भी तो काली है,
रक्षा करता वो देव, वो जग का माली है,
लाख कमाये रोज ही, जाता वो खाली है,
नीच के मरने पर, जग बजाता ताली है।
हर रात की तरह, उदासी लेकर आई है,
जग के दाता ने, सृष्टि ही अजब रचाई है,
प्रभु की सुंदर मूर्त, दिल में अब बसाई है,
किसी ने बुरी तो किसी ने किस्मत पाई है।
हर रात की तरह, आओ झांके उजियारा,
रात बुरी लगे, प्रकाश लगता बड़ा प्यारा,
तन्हाई में डूबे कई, क्या किस्मत पाई है,
उजाला भरा भोर भी, छवि मन बसाई है।
हर रात की तरह
, यह भी बड़ी अंधेरी है,
उजाला खिलने में, होती बहुत ही देरी है,
ये दुनिया अजब गजब,तेरी ना यह मेरी है,
जीने के लिए जग में,जिंदगी मिले भतेरी है।
रात का सन्नाटा गिनता,देख रहा वो तारे,
कहां ढ़ूंढे पूर्वजों को, खो चुके अब सारे,
किसी का दोस्त गया, किसे के गये प्यारे,
तरस रहा दर्शन को, कहां पर उन्हें पुकारे।
जालिम समाज बड़ा है, कत्ल होती रात,
ऐसा सुंदर दृश्य हो, चले तारों की बारात,
कोई सता रहा यहां,कोई मार रहा है लात,
हर रात की तरह, बिछुड़े कितनों के तात।
हर रात की तरह, कहां ढूंढेंगे हम सवेरा,
इंसान के मन को, आज अंधेरे ने यूं घेरा,
जाना निश्चित मान ले, क्यों जमाया है डेरा,
कैसा यह जमाना आया, बन गया लुटेरा।।