विरहिणी
विरहिणी
मेरी जिंदगी का एक मकसद थे तुम
जरूरत से भी ज्यादा एक आदत थे तुम।
मेरी शोध का एक विषय थे तुम
मेरी हर सपनों की हकीकत थे तुम।
क्या पता था एक दिन यूं ही मुझे अकेला छोड़कर जाओगे तुम,
लौटकर फिर कभी भी ना आओगे तुम।
मेरे इस भरे पूरे संसार को खाली कर जाओगे तुम।
बांचते थे रामायण दोनों साथ बैठकर।
"दु:सह बिरह अब नहीं सही जाए।"
याद करो उस दिन रामायण पढ़ कर हम दोनों थे कितने अकुलाए।
भूल गए वह पल छिन सारे।
तुम तो मुझको नाथ बिसारे,
विरहिणी बनाकर छोड़ दिया मुझको,
क्या मेघदूत भी संदेश देने में हारे।
दूर-दूर तक सूनापन पसरा।
जीवन लगता है अब अधूरा।
गीत, इच्छाएं स्वप्न और सिंगार
सब लगता है चुक गए सारे।
अब मृत्यु में ही जीवन दिखता है
तुम्हारे पास आने का साधन दिखता है।
कहां हो साजन ले जाओ अपने साथ मुझे भी।
मैं बैठी हूं यहां पर गुमसुम।