विरह का श्रृंगार
विरह का श्रृंगार
कैसे भुलती होगी नवविवाहित स्त्री
अपने पुर्व प्रेमी की स्मृतियो को
बांध लेती होगी मिलानात्तुर
भावनाओ को अपने जुडे मे
या गुंथ लेती होगी मिलन के क्षण
भर के पलो को अपने केशो मे
शायद उसके पैरो मे बंधी पायल
अहसास कराती होगी बेडियो का
शायद उसका काजल समेट लेता
होगा खुद मे वो सिलसिला सुबह
चार बजे तक की बातों का
हो सकता है उसके हाथो मे खनखनाती
चुडियां रोक लेती होगी उसे खत लिखने से
या उसके होठो पर लगी लाली मना कर देती
होगी उसे अपने प्रेमी का नाम लेने से
सिर पर ओढ लेती होगी अतीत की यादों को
नथनी की तरह टांक देती होगी
रुठने मनाने के किस्सो को
साडी की प्लेट्स मे भुला देती होगी
उन रास्तो को जिन से रोज गुजर
कर भविष्य के ख्बाब बुने थे
सोने- चांदी के जेवरो ने मुल्य गिरा
दिया होगा पहले उपहार मे मिले झुमका
अनामिका अंगुली की अंगुठी ने जोड
दिया होगा हिस्सा उसके टुटे दिल का
हार के मोतियो मे पीरो ली होगी
पहले प्रेम की असफलता को
माथे की बिंदी के साथ
सिर पर सजा लिया होगा
विरह के दुख को
इस श्रृंगार मे कुछ तो अलग
किया होगा उसने वरना
कैसे भुली होगी वो नवविवाहित स्त्री
अपने पुर्व प्रेमी की स्मृतियों को।

