विद्यार्थी जीवन
विद्यार्थी जीवन
पहली बर जब पठशाला में रखे थे पैर,
शुरु की थी यह अनोखी सैर।
पहली बर जब माता-पिता का हाथ था छोड़ा,
स्वयं को इस पठशाला के परिवार में था जोड़ा।
जब वहाँ किसीको न जानते,
केवल मौज-मस्ती की दुनिया को पहचानते।
पढ़ाई का न था कुछ मतलब,
वह कक्षा बहुत छोटी लगती थी जब।
धीरे-धीरे जानने लगे थे शिक्षिकाओं को,
अब जानी-पहचानी लगने लगी थी कक्षाएँ तो।
अब बनने लगे थे कुछ दोस्त भी,
पढ़ाई तो शुरु हो ही गई थी।
लेकिन पढ़ाई थी अत्यंत ही सरल,
जैसे भिन्न रंग और स्वादिष्ट फल।
परीक्षा भी शुरु हो ही रही थी,
पर चिंता की कोई बात ही नहीं थी।
तीन वर्ष यू ही बीत गए,
लेकिन खेल-कूद में कोई रुकावट न बन पाए।
छुट्टियों में आता बड़ा मज़ा; परंतु पाठशाला होती थी स्मरण,
उस समय का कैसे करूँ विवरण।
अब पहली कक्षा में जा रहे थे,
निचली मंज़िल को अलविदा कहकर पहली मंज़िल में प्रवेश कर रहे थे।
अब वहाँ नई शिक्षिकाएँ थी,
मेज़ एवं कुरसी भी पूर्व से बड़ी थी।
पूरा माहौल बदल गया था,
पढ़ाई का बोझ थोड़ा, बिलकुल थोड़ा-सा, बढ़ गया था।
अब और भी दोस्त बन गए थे,
अब हम फूल एवं फलों के नाम भी जानने लगे थे।
संख्या एवं अक्षरों के संग खेलना सीख रहे थे,
बचपन की मौज-मस्ती के लुत्फ़ अब भी उठा रहे थे।
विभिन्न कार्यक्रमों में भाग ले रहे थे,
शिक्षिकाओं का विश्वास भी पा रहे थे।
अब जब जा रहे थे दूसरी कक्षा में,
तो खुशी हो रही थी कि बड़े हो रहे हैं,
लेकिन खेद था इस बात का,
कि पहली कक्षा में बिताया वो अच्छा वक्त फिर नसीब नहीं होगा।
ऐसे ही गुज़र गए तीन वर्ष और,
चार वर्ष बिता लिए हर्ष के संग।
अब दूसरी मंज़िल को भी छोड़कर तीसरी मंज़िल में प्रवेश करेंगे,
अब पेन्सिल नहीं, पेन का उपयोग करेंगे।
दूसरी मंज़िल पर थे सबसे बड़े, अब सबसे छोटे हो जाएँगे,
पढ़ाई एवं ज़िम्मेदारी तो अब बढ़ जाएगी।
एक और वर्ष बीत गया, छटी कक्षा में आ गए,
गिनती की जाए, तो इस पाठशाला में अब केवल चार वर्ष शेष रह गए।
लगता है, फिर से छोटे हो जाए,
इस पाठशाला में सदा रह पाए।
हम कभी बड़े न हो जाए,
ताकि दोस्तों के साथ मौज़-मस्ती कर पाए।
शिक्षिका की डाँट फिर से सुन पाए,
काश! यह सफ़र फिर से शुरु हो जाए।
