नदी
नदी
नदी हूँ मैं, मैं चली
ऊँची नीची गली गली....
ऊँचाई से निकली और
गिरी धड़ाम से खाई में
फिर भी सँवरती हिम्मत न हारती
चलती चली गहरायी में
कभी उग्र कभी मद्धम
गति बदली हर ढाल पर
पानी थी अपनी मंज़िल
नहीं रुकी किसी हाल पर
थोड़ी थकी थोड़ी मुदित
जा पहुँची सागर की तली।
मैंने बनाए खेत खलिहान
अनेको को दिया अन्नदान
कहीं बिछायी हरियाली
और रखा बाग़ वानो का मान
कितने रूप सँवारे मैंने
कितने ही जन तारे मैंने
कोख में अपने पाले हैं
कितने ही सितारे मैंने
सबकी तृष्णा मिटाती रही
चाहे देकर अपनी बली।
इतने उपकार किए फिर भी
गए सब मुझको भूल
मेरे सब वरदान इन्होंने
कर दिए माटी धूल
बाँध बनाया कचरे फेंके
किया मुझे दूषित
पर जब मेरा संयम टूटेगा
हो जाएँगे ये सब मूरछित
ख़ुशियाँ है मुझसे तभी तक
जब तक हूँ मैं भली भली।