मैं उसे ढूँढ़ रही हूँ…
मैं उसे ढूँढ़ रही हूँ…
वहीं-कहीं भूल आई थी मैं उसे,
उस ही को ढूँढ़ रही हूँ,
हर आते-जाते हवा के झोके से,
उस ही का पता पूछ रही हूँ।
एक उम्मीद है मन में,
कि कही, किसी कोने में, वो मिल जाए,
पर एक डर भी है मन के किसी कोने में,
कि क्या होगा अगर वो कभी ना मिल पाए ?
लेकिन मैं उसे ढूँढ़ लूँगी,
जहाँ छूट गया था, वहीं-कहीं होगा न,
जैसा वो छूट गया था,
अब भी वैसा ही होगा न ?
हज़ारों आँखों में से, उन दो आँखों की चमक,
अब भी वैसी ही होगी न,
और उस एक चेहरे की मुस्कान,
अब भी सब चेहरों से अलग ही होगी न।
जवाब ज्ञात नहीं है मुझे,
पर अब जवाब है ढूँढ़ना,
क्योंकि उसके बिना करना मुश्किल है,
अपने जीने की कल्पना।
मैं उसे ढूँढ़ रही हूँ, अपने वजूद को,
जिसे आगे बढ़ते-बढ़ते, कही पीछे छोड़ आई थी,
जिसके बिना, जीवन जैसे बनकर रह गया है,
बस एक काली परछाई।