विद्रोह
विद्रोह
आज कितनी सारी बातें दिमाग मे घूम रही थीं...
मुझे लगा इनपर एक अच्छी कविता बन सकती है....
काग़ज़ कलम लेकर मैंने लिखना शुरू किया...
लेकिन यह क्या?
जैसे ही मैं लिखने बैठी मुझे उन सबके कहकहे सुनायी देने लगे....
कहकहों के बीच झुंड बनाकर वे मेरे आगे पीछे गोल गोल घूमने लगी...
लगने लगा कि वे जैसे मेरे कलम से विद्रोह करने लगी हैं....
काग़ज़ को रौंदते हुए वह फिर ऊँची आवाज में कहने लगी....
"आजकल तुम्हारी इन काग़ज़ी बातों की कोई कदर करता है क्या?
कहते हुए वह मेरी कलम की ओर हिकारत से देखने लगी.....
मैं तो कवयित्री ठहरी.....
एक बिलकुल ढीठ सी कवयित्री...
कलम को उँगलियों में भींचकर मैं फिर से काग़ज़ को अपनी तरफ खींचते हुए लिखने लगी....
कहकहों के बीच वह सारी बातें किसी ज़िद्दी शै की तरह कहने लगी....
"तुम्हारी ये कविताएँ कौन पढ़ता है आजकल?
तुम्हारी इन रूमानी कविताओं में कोई सच्चाई भी है?
इन क
विताओं ने सदियों से लोगों को भ्रम में रखा है.....
एक राजकुमार सफेद घोड़े पर आकर लडक़ी ब्याह कर ले जाएगा....
वह लड़की उस घर मे राज करेगी और उसका एक सुखी संसार होगा....
एक बड़ा सा उसका घर होगा...
और भी न जाने क्या क्या......
हक़ीक़त में ना तो वह कोई राजकुमार होता है.....
और ना ही उसका कोई सफेद घोड़ा होता है....
वह तो बस एक आम सा पुरुष होता है....
पुरुषी अहंकार से भरा हुआ एक आम पुरुष.....
ब्याह के समय लड़की को रानी बनाकर रखनेवाले उन वादों को धता बताकर वह बस हुकुम चलाते जाता है....
जबतब अपनी मर्जी थोपता रहता है...
रानी के वादे वाली स्त्री अगर उसकी मर्जी को तरजीह ना दे तब सबकुछ भूलकर वह चीखने लगता है.....
और वह रानी वाली स्त्री ताउम्र जब तब अचंभित रहती है...…"
एक लम्हे के बाद उन्होंने मेरी तरफ एक सवाल दागा
'इस हक़ीक़त के बाद अब बताओ क्या हम तुम्हे कोई कविता लिखने दे?'
बड़ी बड़ी कविता लिखने वाली मेरे जैसी कवयित्री ने भी कलम बंद कर खामोशी ओढ़ ली....