विधवा
विधवा
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विधवा होना सबसे बड़ा गुनाह है
जीवन को कर देता यह तबाह है
हंसती-खेलती जिंदगी लूट जाती,
जीवन मे रह जाती बस आह है
स्त्री सोचती क्यो किया विवाह है
इसमें तो पग-पग पर ही दाह है
जीते जी स्त्री की बनती कब्रगाह है
विधवा होना सबसे बड़ा गुनाह है
उसका सजना-सँवरना छीनता है
उसे श्वेत वस्त्र ही पहनना पड़ता है
ख़त्म हो जाती फिर जीने की चाह है
विधवा होने से घाव बनता स्याह है
अब तो पुरानी सोच बदलनी चाहिए
बुझे दीये से अग्नि निकलनी चाहिए
उसे देना चाहिए जीने की नव चाह है
बंद होनी चाहिये रूढ़िवादिता की आह है
फिर न हो विधवा होना बड़ा गुनाह है
खत्म हो जाये इन शूलों की ये डाह है
सब एक जैसे हो, हम उनके जैसे हो
हर फूल में हो समान खुश्बु की चाह है।