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Laxmi Yadav

Classics

4  

Laxmi Yadav

Classics

विभीषण का राज्याभिषेक

विभीषण का राज्याभिषेक

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काहे रघुनंदन मोहे नरेश बनाये, 

सिंहासन मुझको तनिक न भाये, 

इतिहास सदा मोहे धिक्कारे, 

भ्राता मृत्यु का कलंक लगाये, 

काहे संकटमोचक राजतिलक लगाये, 

घर घर मे जग यही बतलाए, 

देखो,घर का भेदी लंका ढहाये, 

कोई ना मुझे शीश झुकाये, 

देखी इसने अग्नि मे स्वाहा होती लंका, 

मामा मारीच के माया को कोई ना दोष देता, 

सुरपंनखा की करनी नादानी मे गिनता, 

कुंभकरण आज्ञाकारी भ्राता कहलाता, 

मेघनाथ जैसा तो कलियुग मे सुत ही बिरले, 

तात के अधर्म हठ पर जान न्यौछावर कर दे, 

काहे मैंने अमृत कलश का राज बताया, 

काहे मै कर ना सका अग्रज से सेवा भक्ति, 

हाय, कितनी शोभित थी ये दशानन की लंका, 

शिव भक्ति मे था लंकेश का डंका, 

अंबर पाताल मे नही कोई ज्ञानी मेरे भाई जैसा, 

काहे जनक सुता का मोह जगाया, 

काहे दशरथ नंदन से बैर बढ़ाया, 

काहे सहोदरा को ना समझाया, 

पर -स्त्री मोह ने त्रिलोक गँवाया, 

शक्ति से भस्म हुए सारे देवता जहाँ पर, 

असुर मै कहाँ टिक पाऊँगा वहाँ पर, 

सुरपंनखा की स्त्री दंश पड़ी भारी, 

दशाग्रिव की मति गई थी मारी, 

पर सारा अपयश मेरे ही उपर आया, 

अहिरावन भी वीरगति को पाया, 

मैं ही ऐसा कुलनाशी कहलाया, 

बतलाओ हे रघुपति राघव राजा राम, 

कैसे रक्तरंजित सिंहासन पर विराजू, 

कैसे भ्राता के लहू का तिलक लगाउ, 

और बतलाओ हे केसरी नंदन, 

क्या करूं 

इस लंका नरेश से विहीन, 

सोने की भस्म हुई लंका......... |



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