संध्या सुंदरी
संध्या सुंदरी
पग नूपुर बाँध
कर सोलह शृंगार
ओढ़ सिंदूरी आँचल
आँखों पर लिए लाज का घूंघट
नीरव पग धरती
अपने
प्रेमी प्रीतम की प्रतीक्षा करती
संध्या सुंदरी।
ऊषा का दमन थाम
सप्ताश्वारोही
निकला था प्रातः
प्रचंड तेज़ बिखेरता
धरती और गगन में ,
लो आ गया अंशुमाली
अब
साँझला के पास।
बांध बहू पाश में
कर रहे मधु मिलान
अद्भुत छटा बिखरी है
मंत्रमुग्ध
देख रहे सभी
कितनी देर चलेगा
पर
यह प्रणयमिलन ?
रुक नहीं सकता ये
किसी एक के साथ.
पास ही तो खड़ी है
बाहें फैलाये
अपने अंक में भरने को आतुर
अंधियारे की चादर ओढ़े
रजनी।
तेज़ और प्रचंडता जाने कहाँ
खो जाती है
हो जाता है मलिन
और डूब जाता है
इसके अंधियारे में।
चिर पुरातन ये क्रम
चल रहा है
पर
इसमें नूतन भी तो है कुछ
संध्या सुंदरी
जो देती है
अद्भुत रूप और लावण्य
इस जग को।
उसका भी तो एक
अंतर्प्रलाप है
मिलकर तो नहीं मिला सका
उसको
पास आकर भी तो
अपना न हो सका
आते ही छीन ले जाती है उसे
हर बार
और
वो फिर रह जाती है
पहले जैसे ही अकेली।
इस अंतर्वेदना को
किसने समझा है
जिसको झेल रही है संध्या सुंदरी
युगों युगों से।
Yogesh Kanava
9414665936