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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Abstract Classics Inspirational

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Abstract Classics Inspirational

गजल : हद बेहद

गजल : हद बेहद

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हदों को लांघने का देखो रिवाज चल पड़ा है 

इसीसे तो दुखों से आज बेहद पाला पड़ा है 


सागर भी भूल रहे हैं अपनी हदों की सरहदें

छूने को आसमान "सुनामी" सा आ खड़ा है 


हदों से बाहर निकल के नंगा नाच रहा है झूठ 

बेहद डरा हुआ सच कोने में दुबका सा पड़ा है 


जरा सी ढील क्या दी बेलगाम हो गई है जुबां 

जिधर देखो उधर ही जुबां का ही तो लफड़ा है 


हदों में आजकल कौन रहना चाहता है "हरि" 

हदों को तोड़ने का आनंद ही बेहद तगड़ा है।


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