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Sanjay Aswal

Tragedy

4.7  

Sanjay Aswal

Tragedy

वेश्या

वेश्या

1 min
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मैं बिस्तर पर बिताती हूं वक्त, 

उन सफेदपोश 

सभ्य समाज के लोगों के साथ, 

जो अक्सर दिन के उजालों में 

मेरी छाया से कतराते हैं, 

मेरे पास होने के डर से

भी दूर भाग जाते हैं, 

मुझे देख नाक मुंह ऐसे सिकोड़ते हैं, 

जैसे मैं पापिन कलंकिनी हूं, 

छू लूंगी उन्हें तो वो 

शापित हो जाएंगे। 

उनके लिए मैं 

समाज का कलंक हूं, 

अभिशाप हूं,

किसी और जहां से आई हूं, 

मुझमें तमाम बुराइयां ढूंढते ढूंढते,  

वो मुझे चरित्रहीन बना देते हैं,  

मुझे रण्डी, छिनार, कुलटा, वेश्या नामों से पुकारते हैं,

मगर रात होते ही 

आ जाते हैं दर पर मेरे, 

अपनी शरीर की भूख को तृप्त करने, 

मुझे प्यार से चूमने चाटने, 

अपनी कामुकता का भोंड़ा प्रेम दर्शाने,

टूट पड़ते हैं वो मेरी देह पर ऐसे,

जैसे गीदड़ों का झुंड टूटता है 

मृत हिरण की देह पर, 

लूटते, खसोटते हैं 

वो मेरे अंग अंग को, 

जताते हैं अगाध प्रेम, 

अपने क्षणिक सुखों के लिए, 

नोच डालते हैं 

मेरी आत्मा को इस हद तक, 

कि नग्न होते हुए भी 

मैं "बेहया" बन जाती हूं, 

बेशक मैं तन बेचती हूं, 

मगर जमीर हरगिज नहीं, 

इन सफेदपोश 

समाज की वेश्याओं की तरह ,

जो दिन कि रोशनी में 

करते हैं मुझसे 

बेपनाह नफरत,

पर रात होते ही 

वासना से परिपूर्ण आ जाते हैं,

मेरे पास,

मुझे खुद पर शर्म नहीं आती,

क्यों कि मन मेरा पवित्र है,

पर तरस आता है 

इन समाज की सफ़ेदपोश 

वेश्याओं

पर जो मुझे, 

वेश्या बुलाते हैं।


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