वेदना का शूल गड़ता है
वेदना का शूल गड़ता है
वेदना का शूल गड़ता है
ये मेरा दुःख एक आवा है
घड़ा मुझ में रोज गढ़ता है
अनमने सुख रोपता क्या मैं
गाड़ता क्या, सींचता क्या मैं
न अँकुरता है, न बढ़ता है
बाँध से मिट्टी ढलकती है
आँख की प्याली छलकती है
रोकने भर कुछ न अड़ता है
छाँक भर मुझको उसनने दो
चार दिन बस सजल रहने दो
है तो है निर्मम निविड़ता है।