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संजय कुमार शांडिल्य

Others

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संजय कुमार शांडिल्य

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ग़ज़ल

ग़ज़ल

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कदम जो डगमगाते हैं संभल भी जाते हैं

ऊबने वाले सुनो हो बहल भी जाते हैं ।


जो रंग खूब जमी महफिलें सजाते हैं

दो बूंद आब पड़े तो बदल भी जाते हैं ।


जो खैंक गड़ते हैं ऊँगली की पोर में बारहा

जरा सी सूई से पल में निकल भी जाते हैं ।


अभी तो ताज़ा है ये ज़ख्म इसका मरहम है

फ़ानी ए वक्त में ज़खमेकुहन भी जाते हैं ।




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