ग़ज़ल
ग़ज़ल
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कदम जो डगमगाते हैं संभल भी जाते हैं
ऊबने वाले सुनो हो बहल भी जाते हैं ।
जो रंग खूब जमी महफिलें सजाते हैं
दो बूंद आब पड़े तो बदल भी जाते हैं ।
जो खैंक गड़ते हैं ऊँगली की पोर में बारहा
जरा सी सूई से पल में निकल भी जाते हैं ।
अभी तो ताज़ा है ये ज़ख्म इसका मरहम है
फ़ानी ए वक्त में ज़खमेकुहन भी जाते हैं ।
