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तुम नहीं हो

तुम नहीं हो

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जैसे काँच की धार पर

रखी हो काँच की धार,

वैसी बुखार की एक

प्याली चाय।


जैसे खूब टूटकर

किए गए काम के बाद,

दिखे हल्की सी

साहब की आँखों में सहानुभूति,

वैसा ही आभार-आभार।


टूटकर किया जाने वाला काम

और देह तोड़ती हुई बुखार।


है यह युग्म भी संभव

और यह साँझ जो साँझ

के बाद उतरी है,

ओह ! कितनी हिंसक है।


इन सब यातनाओं की हिंसा

सभी शत्रु हैं आज की शाम,

और तुम नहीं हो।।


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