वायुदूत सागर पृथ्वी का
वायुदूत सागर पृथ्वी का
धरती और समुद्र दूर भी हैं पास भी हैं,
एक दूसरे के मिज़ाज का पता है इन्हें।
धरती गर्मी में तपती
गर्म होती धधकती,
हवा ऊपर उठकर जाती
शून्य रहता,समुद्र अकुलाता।
समुद्र से हवाएँ चलती धरती की ओर
भरने धरती की ख़ाली हुई जगह को।
तब अमृत की बूँदे झरतीं
धरती की जलती छाती पर
सागर धरती का मिलन ये
कितना सुंदर कितना मादक।
धरती की भीषण तपन
प्लावित होती जलधारा से।
जल थल एक हो जाता
हरियाली खिल जाती ।
पावस ऋतु आ जाती
घन घुमड़ घुमड़ गहराते,
सरिता ताल भर जाते
प्रकृति नटी का रूप,
बदलता और सँवरता ,
हरिताभा साड़ी पहने।
बिजली चमक चमक कर
सलमे सितारे जड़ती।
और जब धरती शांत हो जाती,
जलन मिट जाती
धीमे धीमे चलकर सुहानी
शरद ऋतु आती।
ठण्ड बढ़ती जाती
ठिठुरन होने लगती,
तो धरती से हवाएँ
समुद्र की ओर बहतीं,
धरती का मिज़ाज
समुद्र को बतातीं।
धरती और समुद्र का
यह मौन संदेशा
एक दूसरे को देतीं ये हवाएँ
वायुदूत से कम नहीं।
'मेघदूत' का यक्ष रामगिरि से
मेघ द्वारा अलका में अपनी
प्रिया को पाती भेजता ,
धरती वायु द्वारा अपनी
पाती समुद्र को भेजती।
समुद्र हवाओं से ही उसका उत्तर देता।
सागर धरती के इस मौन रोचक
आदान प्रदान के साक्षी हैं ये पहाड़,
जो अपने सीने पर हवाओं को झेलते ,
और धरती की ओर मोड़ देते ।
जैसे शिव के जटाजूट से गंगा निकली थी,
ऐसे ही पहाड़ों से टकराते ही
जल भरी हवाएँ बरस पड़ती हैं।
काले बादल छा जाते हैं,
ऑंधी चलती है,
शिव के अट्टहास समान
गड़गड़ाहट होती है,
और धरती इस पावन गंगा से
भीग भीग जाती है।
दामिनी दमक दमक
उसमें रंग भरती है,
और अद्भुत छटा से
प्रकृति नहा जाती है,
सज जाती है।