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Dr. Tulika Das

Romance

4.5  

Dr. Tulika Das

Romance

उठाती हूं जब - जब कलम ,

उठाती हूं जब - जब कलम ,

2 mins
304



उठाती हूं जब जब-जब कलम

तुम्हें करीब पाती हूं ।

लिखती हूं जब - जब मैं नज्म ,

तुम्हें थोड़ा जी लेती हूं ।

स्याही से अकसर अपने जज्बात भिंगोती हूं ,

जब-जब जब तुम जगे मुझ में ,

शब्दों से तुम्हें छू लेती हूं ।

लगती हूं तुम्हारे गले से ,

तुम्हें थोड़ा जी लेती हूं ।


हर ठहरे हुए लम्हे से

होकर मैं गुजरती हूं ,

राहें बदल भी लूं जो मै‌

तुम से ही आ टकराती हूं ।

पल भर का ये मिलन ,

है बड़ी इसमें जलन ।

जलने का मजा मैं लेती हूं ,

जी लेती हूं तुम्हें थोड़ा ,

जब - जब मैं जलती हूं ।


है यादों के शहर में ,

अक्सर मेरा आना - जाना ।

हर मोड़, हर नुक्कड़ पर ,

लिखा तेरा- मेरा अफसाना ।

हर अफसाने, हर किरदार में,

 जिक्र है तुम्हारा ।

ज़िक्र ये होठों पर ठहर जाता है ,


जी लेती हूं तुम्हें थोड़ा,

जब - जब नाम तुम्हारा आता है ।


एहसासों से बना ,

एक घर है पुराना ।

चारों तरफ फैली धूल में,

तेरी उंगलियों के निशान ढूंढना ।

छूकर इन निशानों को,

हाथ तेरा मै थाम लेती हूं,

जी लेती हूं तुम्हें थोड़ा ,

जब - जब हाथ तेरा मै थामती हूं।


कुछ अधूरी ख्वाहिशें हैं ,

मेरे तन पे लिखी ।

पढ़ ले उन्हें जो ,

वो नजर मैं ढूंढती हूं ।

पूरी करें जो यह अधूरी इबारतें

वो अक्षर मैं ढूंढती हूं ।

कभी गालों के तिल से

कभी मेरे सीने में धड़कते

तेरे दिल से ,

मैं सवाल पूछती हूं ।

जी लेती हूं तुम्हें थोड़ा ,

जब-जब जवाब मै ढूंढती हूं ।


स्याही से अक्सर

अपने जज्बात भिगोती हूं ,

जब-जब तुम जगे मुझमें ,

 शब्दों से तुम्हें छू लेती हूं ।

लगती हूं तुम्हारे गले से ,

तुम्हें थोड़ा जी लेती हूं ।

उठाती हूं जब - जब कलम ,

तुम्हें करीब पाती हूं।

लिखती हूं जब - जब मैं नज़्म,

तुम्हें थोड़ा जी लेती हूं।



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