उषा का श्राप
उषा का श्राप
आर्द्र हुए कुसुमित प्रभात दृग
जग ने उषा तुहिन जाना,
पट खुले भयंकर अक्षों के
जग ने निशीथ को ना जाना।
तृण - तृण, तुहिनों को रोप स्वयं
दृगजल से सिंचित करता है,
निज रिक्त किए, निज अक्षों को
निज उषानाथ पुन भरता है।
तम दृग, तमस, निशिसुत 'निशीथ'
विलसित तम विस्तृत करता है,
छल से, तम, उषागर्भ में भर
पुन - पुन 'प्रभात' को छलता है।
कर्मठ 'प्रभात', निष्ठुर 'निशीथ'
निशिवासर द्वंद चला करता,
एक, उजियारा फैलाने को
दूजा, 'उसको' हर जाने को।
कोटर में छुपा हुआ, मनुष्य !
तिल - तिल, प्रमाद में डूबा है,
भर - भर, निशीथ को, नयनों में
नित उषाकाल को तकता है।
अल्पज्ञ मनुज, मद, मत्सर में
अनभिज्ञ समरभू के तप से,
तृण- तृण, तुहिनों पर चलता है
दृगजल को पग से दलता है।
अतिकाल हुआ, अरुणोदय में
थोपे मतर्य ने उपालम्भ,
निष्कलंक उषा, 'याज्ञसेनी'
पर हाय ! मनुज ने ना माना।
जब तक 'निशीथ' है अक्षों में
तू क्या 'प्रभात' को जानेगा,
संतप्त 'उषा' - अभिशप्त 'मर्त्य'
चक्षु - चक्षु दृगजल पूरित !
तबसे 'प्रभात' पर पोषित, नर
क्षण - क्षण दृगजल में गलता है,
जगते 'मतर्य' के अक्षों में
केवल 'निशीथ' ही रहता है !