उद्दाम यौवन बीत गया निर्बाध
उद्दाम यौवन बीत गया निर्बाध
विकल मन प्रिय से विछोह ना सह पाता अगाध ,
इस मानिनी ने उद्दाम यौवन बिताया है निर्बाध !
प्रिय के बाहुपाश अवगुंठन से रही सदा हीन ,
मिलन की कामना होती हर क्षण विलय में विहीन !
आँखों के कोर पर रुक से गए हैं सूखे हुए अश्रु ,
पीड़ा भरे मन के निलय भाव को देखे कौन चक्षु !
बैठी रहती लिए अपना मन अनुरागी अपने साथ ,
भेद सके ना मेरे हृदय के गुप्त भाव निलय नाथ !
प्रिय संग मन ही मन का ऐसा जो संजोग लगा ,
जैसे तन मन एक होकर ऐसा वक्र व्योम जगा !
निर्बल हुई काया मूक मन हुआ अधीर प्राचीर ,
प्रति पल अश्रुधारा सिक्त तिक्त हिय बहाए नीर !
विच्छिन्न हुए प्राण बाण उन संग प्रीत काहे जोड़ी ,
अब हुई विरिहनी अंतस में उनकी छवि बसी मोरी !