त्वमेव साक्षात
त्वमेव साक्षात
ये जो मेरी खिड़की से
संसार दिखाई देता है
बस इतने से टुकड़े में
पूरा ब्रह्माण्ड समाया रहता है ।।
मुझमें तू और तुझमें मैं
प्रतिपल स्पंदित होते रहते हैं
उस स्पन्दन के कारण से ही हे सखे
तेरा मेरा, आकार दिखाई देता है ।।
तू सृजनात्मक मैं सृजनात्मक
हम ऊर्जित अलख निरंजन की
उस सत्य सनातन संस्कृति से
आपस का परिणाम भुगतना होता है ।।
ये जो मेरी खिड़की से
संसार दिखाई देता है
बस इतने से टुकड़े में
पूरा ब्रह्माण्ड समाया रहता है ।।
एक नदिया के उदगम स्थल का
सृष्टिकर्ता ने जब प्रादुर्भाव रचा
ऊर्जा भर दी उसकी नस नस में
लहरों ने ही तब असीमित अभियान गहा ।।
कुछ न कहना कुछ न सुनना
अपनी धुन में रह कर बहते रहना
एकाग्रचित्तता के प्रण का
तब उसने परिमार्जित रस रूप जिया ।।
ये जो मेरी खिड़की से
संसार दिखाई देता है
बस इतने से टुकड़े में
पूरा ब्रह्माण्ड समाया रहता है।।